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Saturday, 29 August 2020

अलविदा नंदन पत्रिका




90 के दौर में जिनका जन्म हुआ होगा वह नंदन नाम को अच्छे से जानते होंगे। आज यह बाल पत्रिका को बन्द करने की घोषणा की गई है। 56 साल का लंबा सफ़र तय करने के बाद आज अचानक से इसे बन्द किया जा रहा है।
दरअसल, कोई भी चीज़ अचानक या एकाएक बन्द नहीं होता है। कोई अप्रत्याशित घटना के लिये कई पृष्ठभूमि काम करती है। नंदन का बंद होना एक अप्रत्याशित घटना ही है। हमारी पीढ़ी का पहला साथी नंदन जब आज हम सबको छोड़ कर जा रहा है तो इसके पीछे के उन कारणों को जानना आवश्यक है। 
हमारी पीढ़ी जो हर महीने नंदन के बिना चैन से रह नहीं पाती थी। आज उसमें से कइयों को इस बात की जानकारी भी नहीं है कि अगले महीने से यह पत्रिका बाज़ार में दिखना बन्द हो जाएगा। समय के साथ जो बदलाव हुए हमारे दौर के लोगों को पढ़ने की आदत दादा-दादी, नाना-नानी वाली पीढ़ियों से प्राप्त हुआ। यह तो भारतीय परंपरा रही है कि घर में प्रथम और तृतीय पीढ़ी में खूब छनती है। बस इसी प्यार में वह बुजुर्गों की पीढ़ी ने अपने पोता पोतियों के दिमाग में किताबो के प्रति लगाव भरे। मुझे नहीं लगता उस दौर का कोई भी बच्चा ऐसा होगा जो नंदन, नन्हे सम्राट, चंपक, राज कॉमिक्स, डायमंड कॉमिक्स, बाल भारती को नहीं पढ़ा होगा। 
उसके बाद क्या हुआ, हमारे दादा दादी की पीढ़ी इस दुनिया से जाने लगे और हम तीसरी पीढ़ी के लोग बड़े होते चले गए और डिजिटल आँधी में उड़ गए। इस डिजिटल आंधी में संयुक्त परिवार की अवधारणा टूटी एकल परिवार का चलन बढ़ा। जो महानगर के दृश्य इन किताबों में सपनों की दुनिया जैसी लगती थी वो वैश्वीकरण के कारण हमारे बगल में आकर सट गया। हम खुद मोबाइल, लैपटॉप और इंटरनेट में खुद को कैद कर लिए। इसके साथ ही आने वाली पीढ़ी को भी इसमें कैद करते जा रहे हैं। 
इसका मुख्य कारण है पहले के बच्चें पूरे घर के लोग मिलकर पालते थे। अब सिर्फ माँ-बाप को अकेले पालना पड़ता है। बच्चें परेशान ना करें इसके लिए उन्हें बचपन से हम मोबाइल हाथ में थमा देते हैं। लोग खुश होकर बोलते हैं मोबाइल युग का बच्चा है। नहीं, वह बच्चा बीमार है...
दादा दादी से कहानी सुनने की जगह वह यूट्यूब के माध्यम से कहानी सुन रहा है। वह खाने वक़्त भी मोबाइल देखना चाहता है। 
मुझे याद है कहानी की किताब पढ़ने की आदत मुझे बाबा दादी से ही मिला था। किताबें हममें संस्कारों को सम्प्रेषित करती थी। पर आजकल यह खत्म सा हो गया है। इस डिजिटल युग के कारण बच्चों में सर्वागीण विकाश का अभाव है। 
हमें दुबारा अपने बच्चों को किताबों के पास ले जाना होगा। एक पत्रिका जब बन्द होती है तो अचानक से बन्द नहीं होती। बन्द होने का माहौल कई दिनों से बनने लगता है। पर उस लिगेसी को बनाये रखने के लिए कुछ दिन खींचा जाता है। और, एक दिन वह बन्द हो जाता है। ये खींचने वाला दौर उस पत्रिका के टीम के लिए सबसे दुखदाई समयों में से एक होता है। 
आज हम सबको सोचने की जरूरत आन पड़ी है।
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मेरे यहाँ जब नंदन आता था तो उसे सबसे पहले मैं पढ़ता था क्योंकि मैं 40 से 50 मिनट में पढ़ जाता था। उसके बाद मम्मी और दादी पढ़ती थी। दादी अपने मोटे चश्मे में दो से तीन दिन में उसे खत्म करती थी। और, उसके बाद उस अंक के किसी कहानी पर हम दोनों की बहुत देर चर्चा होती थी।
हमें सोचना होगा चिंतन करना होगा हम आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं और क्या देकर जाएंगे। 
अगर यह चिंतन पहले हुआ रहता तो नंदन को आज यूँ बन्द नहीं होना पड़ता
Abhilash Datta.

1 comment:

RU said...

Very sad news. Nandan is having special place in our childhood memories.