आइये थोड़े ईमानदारी से जाने
कि पत्रिकाएं आखिर बंद क्यों हो जाती हैं
पहली बात तो यह समझ लीजिये कि कोई भी संस्थान इसलिए कोई पत्रिका बंद नहीं करता कि उसकी मर्जी है बंद करने की. नहीं,दरअसल पत्रिकाएं बिकती नहीं,बिकती नहीं तो विज्ञापन नहीं मिलते,विज्ञापन नहीं मिलते तो ये संस्थानों पर बोझ बन जाती हैं.ऐसे में इसका अंत बंद होना ही होता है.
1970 में भारत की साक्षरता दर करीब 35 फीसदी थी,1980 में करीब 44 फीसदी 1990 में करीब 52 फीसदी जबकी आज करीब 84 फीसदी है.लेकिन 1970 से लेकर 1990 तक देश में हिंदी की एक दर्जन से ज्यादा पत्रिकाएं थीं जो 1 लाख से 4 लाख तक बिकती थीं.धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,मनोहर कहानियां,माया,इंडिया टुडे,सरिता,कादम्बिनी,चंपक और चंदामामा तथा तमाम और.लेकिन आज जबकि देश की साक्षरता दर 84 फीसदी के करीब है तो हिंदी में कोई ऐसी पत्रिका नहीं है जो 50,000 कॉपी बिकती हो.
सवाल है पत्रिकाएं बिकती क्यों नहीं हैं? क्या लोगों की रीडिंग हैबिट कम हुई है,जवाब है बिलकुल नहीं.लोगों कि उलटे रीडिंग हैबिट बढ़ी है.सवाल है क्या वर्चुअल रीडिंग एक कारण है.जवाब है बस किसी हद तक क्योंकि अभी 2017-18 तक वर्चुअल कंटेंट मोबाइल आदि में इतना ज्यादा नहीं था.दरअसल इसका सबसे बड़ा कारण है कंटेंट. मैगजीनों में कहीं ओरिजनल कंटेंट है ही नहीं.हिंदी की एकमात्र पत्रिका अहा जिंदगी है जिसमें किसी हद तक ओरिजनल कंटेंट है.
बाक़ी जितनी पत्रिकाएं हैं उन सबमें उन्हीं घटित घटनाओं का टेबल में तैयार कंटेंट है जो पत्रिकाओं में छपने के पहले दर्जनों माध्यमों से दर्जनों बार हम तक पंहुच चुका होता है.अखबारों के जरिये,इंटरनेट के जरिये,टीवी चैनलों के जरिये या और भी कई तरीकों से.सवाल है पहले से पढ़े हुए घिसे पिटे कंटेंट को कोई कितनी बार पढ़े ? क्या हमारी तथाकथित करेंट पत्रिकाओं में ऐसी कोई सामग्री,ऐसी कोई धारणा,अवधारणा है,जो इन्टरनेट में उपलब्ध न हो ? धीरज धरिये हजारों लाखों की तादाद में चालू हुई वेबसाइटों का भी यही हश्र होना है जो आज पत्रिकाओं का हुआ है.