संसार में सुख के सत्य की तलाश में सिकंदर ने ज़मीन नाप दी, बुद्ध ने गृह त्याग दिया. सुख पर लिखी किताबें बेस्टसेलर बन गयी और सुख पाने के चक्कर में जाने कितने घनचक्कर मारे - मारे फिरते हैं. सुख कमबख्त है कि मुहल्ले की सामूहिक महबूबा बना हुआ है, जो क्षण भर को छत पर कपड़े सुखाने के लिये आये और उस क्षण के इंतज़ार में मुहल्ले का लौण्डागण दिन भर धूप में विद्यमान विटामिन डी सोख सोख कर टैन होते चला जाये.
तो मालिकों सुख की तलाश में बियाबान-रेगिस्तान भटक चुकने के बाद अचानक रेल्वे स्टेशन पर एक कॉमिक पा कर खुशी से झूम जाने वाले उस बालक की याद आयी जो कभी हम स्वयं हुआ करते थे.
एक आठ रुपये की अदद कॉमिक पा कर कारूँ का खज़ानावाली जो फील आती थी उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता. चिथड़ों में व्याप्त कॉमिक कम दामों में खरीद कर उसे किसी पुरातत्त्ववेत्ता वाली कुशलता से कभी सी कर, कभी स्टेप्लर मार कर पुनर्जीवित करने के सुख को भुला कर हम दुनिया के मायाजाल में ऐसे रमे कि भूल गये बण्डल बण्डल कॉमिक खरीद कर अलमारी सजा लेना सुख नहीं... सुख उन्हें बिखेर के फिर पढ़ने में है. फिर उन फटे कवर वाली कॉमिक्सों को देख कर याद करने में है कि इन्होंने हमारा कितना जीवन कैसे स्पेशल बनाया है इसलिये आज भी कॉमिक्स पढ़ना सच्चा सुख लगता है -