शीर्षक - बांकेलाल और उल्टी चाल
एक सुबह बांकेलाल ने विशालगढ़ का राजा बनने के लिए बड़ी ही चालबाज युक्ति निकाली ।
बांकेलाल - ओ मेरा भोला है भंडारी करे नन्दी की सवारी शम्भूनाथ रे ओ शंकर नाथ रे ।
शिव जी ( दिल से पुकारे जाने पर तुरंत प्रकट होते है ) - क्या बात है बांके आज सुबह-सुबह मेरा नाम कैसे पुकार बैठे ?
बांकेलाल - वो प्रभु क्या है कि कल वन में ऋषि भागलँगोटी के लँगोट को बंदर चुरा ले गया और उस लँगोट को मैंने उस बन्दर से छीन कर ऋषिमुनि को लौटाया । लँगोट पहनते ही वो भागने लगे और भागते भागते उन्होंने बताया कि " सुबह सुबह ले शिव का नाम शिव आएंगे तेरे काम "
शिव जी - और तुमने मेरा नाम ले लिया ?
बांकेलाल - हिहिहि ।
बांकेलाल की हिहिहि से भगवान शिव जी के गले से लिपटे नाग जी क्रोधित हो फुफकार उठे ।
क्रोधित नाग ( फुफकारते हुए ) - भगवान शिव जी के सवाल का जवाब देने की जगह हिहिहि करने की हिम्मत कैसे की तूने ? तेरी तो अभी के अभी डसता हु तुझे सिकड़े पनौती ।
बाँकेलाल - क्ष क्षमा प्रभु क्षमा ।
शिव जी - तथास्तु ।
बांकेलाल ( भयभीत हो आश्चर्य में ) - नही नही प्रभु । मैं तो नाग जी से क्षमा मांग रहा था वर में विशालगढ़ का सिंहासन मांगना था मुझे ।
शिव जी - पर दर्शन देने पे तो सिर्फ एक वर देने की रीत है बांके जो हम दे चुके । अगर हम तुम्हे क्षमा ना करते तो अब तक मेरा कंठहार नाग तुम्हे डस चुका होता और तुम्हारी आत्मा बैकुंठधाम को प्रस्थान कर चुकी होती । चलो फिर आज के लिए इतना ही । अहम गच्छषि ।
अहम गच्छषि अर्थात अपने घर जाना । हिहिहि। यानी शिव जी हिमालय प्रस्थान कर गए ।
बांकेलाल - बेड़ागर्क । सोचा था वर स्वरूप विशालगढ़ का सिंहासन मांग लूंगा शिव जी से ताकि रोज रोज षड्यंत्र बनाने की जरूरत ही ना रहती । पर फिर से मेरी योजना का बेड़ागर्क हो गया ।
हिमालय पे
माता पार्वती - आज तो अच्छे फसे थे आप प्रभु ।
शिव जी - सत्य कहा आपने देवी । भक्त तो यह मेरा है पर बुद्धि इसमें महाभारत के शकुनि की है । धन्य है मेरा कंठहार जिसकी पैदा की गई स्तिथी के कारण मैं बांके को वर देने से बच गया वरना आज ये विशालगढ़ का राजा बन ही बैठा था ।
शिव जी हिमालय के ठंड में भी अपने सर पे आये पसीने की बूंद को पोछते है और माता पार्वती उन्हें देख मुस्कुरा रही होती है ।
धरा पे नीचे बांकेलाल फिर से नई षड्यन्त्रकारी योजना बनाने में लग चुका है जो इस बार की तरह उल्टी न पड़े ।
समाप्त ।