सवाल यह आया कि किताब खरीद ली तो उसका पीडीएफ बनाकर बाँटने में क्या दिक्कत है? जवाब भी दिया गया कॉपीराइट आदि के सन्दर्भ में।
यदि कॉपीराइट एक्ट न होता और यह कानूनन अवैध न भी होता तो सोचकर देखिये कि क्या होता।
आपके घर में कोई मजदूर काम करता है तो क्या आप उसे मेहनताना देते हैं? यदि हाँ तो उसे यह कह कर भगा तो नहीं देते कि काम हो गया अब क्यों दें पैसे?
एक किताब के बनने में सबसे पहले लेखक की मजदूरी होती है। एक किताब एक दिन में नहीं लिखी जाती। कई दिन और रातें भी लगती हैं। लेकिन तुरंत हाथ में मजदूरी नहीं आती।
फिर उस किताब पर सम्पादक मेहनत करते हैं। सम्पादक के बाद प्रकाशक उसे छपवाते हैं और बेचते हैं। ऐसा नहीं है कि एक किताब बिक जाने से सारा खर्च निकल गया। जी नहीं। सिर्फ छपवाने का खर्चा निकालने में हजार से ज्यादा किताबें बेचनी होती हैं। कई बार लेखक को इसके बाद रॉयल्टी मिलनी शुरू होती है।
अब सवाल आता है कि रॉयल्टी कितनी मिलती है?
सामान्य लेखक हैं तो 8 रुपये, और बहुत बड़े लेखक हैं तो अधिकतम 15 रुपये एक प्रति बिकने। यह बात मैं उपन्यास आदि के संबंध में बता रहा हूँ। अकादमिक का मामला अलग है।
अब यदि आपने एक प्रति ली, लेखक को औसत दस रुपये मिल गए।
आपने उस किताब की पीडीएफ बनाई और लोगों में बाँट दी। अब हर व्यक्ति जो उस पीडीएफ को पढ़ रहा है, वह प्रकाशक के दस और लेखक के दस चुरा रहा है। जी, यह चोरी ही कही जाएगी।
एक आश्चर्यजनक किंतु सत्य बात यह है कि भारत में अधिकतर हिंदी लेखकों को कुल मिली रॉयल्टी इतनी भी नहीं है जितनी एक मजदूर को एक दिन में मजदूरी मिल जाती है।
सच कहूँ तो पीडीएफ बाँटना ठीक वैसा ही है जैसे ताजमहल बनाने के बाद बनाने वालों के हाथ काटना।
यदि कॉपीराइट एक्ट न होता और यह कानूनन अवैध न भी होता तो सोचकर देखिये कि क्या होता।
आपके घर में कोई मजदूर काम करता है तो क्या आप उसे मेहनताना देते हैं? यदि हाँ तो उसे यह कह कर भगा तो नहीं देते कि काम हो गया अब क्यों दें पैसे?
एक किताब के बनने में सबसे पहले लेखक की मजदूरी होती है। एक किताब एक दिन में नहीं लिखी जाती। कई दिन और रातें भी लगती हैं। लेकिन तुरंत हाथ में मजदूरी नहीं आती।
फिर उस किताब पर सम्पादक मेहनत करते हैं। सम्पादक के बाद प्रकाशक उसे छपवाते हैं और बेचते हैं। ऐसा नहीं है कि एक किताब बिक जाने से सारा खर्च निकल गया। जी नहीं। सिर्फ छपवाने का खर्चा निकालने में हजार से ज्यादा किताबें बेचनी होती हैं। कई बार लेखक को इसके बाद रॉयल्टी मिलनी शुरू होती है।
अब सवाल आता है कि रॉयल्टी कितनी मिलती है?
सामान्य लेखक हैं तो 8 रुपये, और बहुत बड़े लेखक हैं तो अधिकतम 15 रुपये एक प्रति बिकने। यह बात मैं उपन्यास आदि के संबंध में बता रहा हूँ। अकादमिक का मामला अलग है।
अब यदि आपने एक प्रति ली, लेखक को औसत दस रुपये मिल गए।
आपने उस किताब की पीडीएफ बनाई और लोगों में बाँट दी। अब हर व्यक्ति जो उस पीडीएफ को पढ़ रहा है, वह प्रकाशक के दस और लेखक के दस चुरा रहा है। जी, यह चोरी ही कही जाएगी।
एक आश्चर्यजनक किंतु सत्य बात यह है कि भारत में अधिकतर हिंदी लेखकों को कुल मिली रॉयल्टी इतनी भी नहीं है जितनी एक मजदूर को एक दिन में मजदूरी मिल जाती है।
सच कहूँ तो पीडीएफ बाँटना ठीक वैसा ही है जैसे ताजमहल बनाने के बाद बनाने वालों के हाथ काटना।