आयुर्वेद में जो नौ तरह के विकार बताये गये हैं उनमें नॉस्टैल्जिया को महाविकार कहा गया है। माना जाता है त्रिफला चूर्ण खाने से कब्ज़ दूर हो सकती है, मगर नॉस्टैल्जिया का कब्ज़ा नहीं छूटता। मैं खुद कई बार सिर्फ इसलिये लिखता हूँ, कि फिर से वो वक़्त जी सकूँ जो मैंने अपने बचपन के दोस्त बण्टी के साथ जिया है। मगर इस तरह की इच्छाओं के लिये काव्यश्रेष्ठों में श्रेष्ठ माने जानेवाले अल्ताफ राजा कह चुके हैं - “अरे वो साल दूसरा था ये साल दूसरा है!”
अल्ताफ भाई की डिटेलिंग में बाद में जायेंगे पहले ये बता दें कि कॉमिक्स के कोकेन को सूँघ कर हमने जवानी की दहलीज पर कदम रक्खा ही था बस। भाड़े में सुपर कमाण्डो ध्रुव की किताबें पढ़के - नताशा, चण्डिका और ब्लैक कैट पे क्रश मारा करते थे, जबकि कुछ खतरों के खिलाड़ी टाईप के मित्र नगीना और सुप्रीमा जैसी गरलफ्रेण्ड्स को भी देख कर तरल हो लेते थे। पेरेण्ट्स का तब तक फेसबुक पर फ्रेण्ड्स बनने का चलन नहीं था ऐसे में घर में माँ बाप को कॉमिक्स के लिये कन्विन्स करने में जो पापड़ बेलने पड़ते थे उसके आधे एफर्ट में आजकल लव मैरिजें हो जाती हैं।
कॉमिक्स में चुम्बक के गुण और पाजिटिव निगेटिव के जुड़ने से फ्यूज उड़ता है जैसी बातें पढ़ के सबने खुद को वैज्ञानिक समझ लिया था. एक मित्र ने सन चौरानबे में कॉमिक ज्ञान का इस्तेमाल करके घर का फ्यूज उड़ाने जैसी अराजक हरकतों की वजह से बाप से अपनी कुत्ता कुटाई करवा के शकल डोगा की शकल जैसे काली और वायलेट करवा ली थी. उसकी इस हरकत के बाद उसके घर में हम पर बैन लग गया।
‘हरकत उसकी और बैन हम पे’ जैसी परिस्थितियाँ इसके बाद जीवन में कई दफ़ा आईं, मगर वो कहते हैं ना फर्स्ट वन इज़ ऑलवेज़ स्पेशल तो इस बात पर लम्बे वक़्त तक हम दुखी होते रहे कि नूब आदमी को, “तू घर पे ट्राई करके तो देख..” टाईप का ज्ञान नहीं देना चाहिये था। ऐसे में हमारी मुलाकात हुई बण्टी से, जो कि मुहल्ले के बाकी के घरों में बैन था। तमाम बाधाओं को पार करके घरवालों के पहरे में बैठे छोकरों तक कॉमिक्स पहुँचा देने की कला में दक्ष बण्टी से करीब करीब हर माँ-बाप के बीच दहशत का आलम था। हमारी दोस्ती एकदम से पक्की कैसे हुई इस पर इतिहासज्ञों के अलग-अलग मत हैं।
सन् छियानबे आ चुका था, तपती गर्मियों के दिन थे - कछुआ महल का सैट ले कर बण्टी लौटा था रेल्वे स्टेशन से. नागराज वर्ष था. शाम का धुंधलका छा रहा था और कैम्प एक की विश्वप्रसिद्ध धूल चहुँ ओर व्याप्त थी. दुनिया आज की तरह व्यस्त तो नहीं थी मगर लठंगर टाईप लोग एक टाँग साईकिल के ऊपर टाँगे ‘मैं तो अभी चल पड़ूंगा मोड’ की महाव्यस्त मुद्रा धरे घण्टों गपियाने की कला में महारथ हासिल कर चुके थे. कछुआ महल काफी जोरदार कॉमिक थी. ये वो वक्त था जब भोकाल की शादी हो चुकी थी, नागराज की कहानियों का अनुपमाना दौर शुरू हो गया था, डोगा का जीवन तंदूर मगरमच्छ से आगे बढ़ता हुआ कुछ महावायलेण्ट दौर से गुज़र रहा था. बाँकेलाल की तिकड़में बढ़ती जाती थीं। कॉमिक्सों के पिछवाड़ों पर डोगा की रोमाण्टिक तस्वीरें बनी होती थीं जिन पर ‘आई लव यू’ लिखा होता था. ये वो ज़माना था, जब अपन आई लव यू लिखी कॉमिक्स देख कर ही स्कैण्डलाईज़ हो लेते थे.
लाईब्रेरी में कॉमिक्स की सँख्या बढ़ती ही चली जा रही थी. मुहल्ले के हर नये पुराने बच्चे को कॉमिक-रूपी चरस सुँघाने की हमारी आदत की वजह से घबरा चुके कई माँ-बाप अपने बच्चों को हमसे दूर रहने की सलाह मय चप्पलों के दे चुके थे. मगर बिना व्हाट्सैप बिना इमेल की उस दुनिया में इन तमाम बँधनों को तोड़ कर किसी भोकाल प्रेमी बालक को भोकाल से मिलाने का पुण्य फिर भी अपन कमा ही लेते थे. इस पुण्य के बदले दो चार पैसों की जो कमाई हुई उसे हमने सदा प्रसाद की तरह ग्रहण किया. गरमी की छुट्टियों में जब वही माँ बाप कॉमिक्स अपने बच्चों को कॉमिक पढ़ने के वास्ते चिल्हर पैसे दे कर खुद को धन्ना सेठ समझने की फील देते देख, उस कच्ची उमर में ही हमें सामाजिक हिपोक्रेसी अर्थात् पाखण्ड का सही मायने समझ आ चुका था.
बण्टी और हमने दोस्ती की तो कॉमिक्स की वजह से और निभाई भी तो कॉमिक्स की वजह से. अब कॉमिक्सें ज़्यादा नहीं आतीं मगर बण्टी को अब भी नगीना से प्यार है।
- आलोक
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