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Friday 20 January 2017

कॉमिक्स यानी चित्रकथा की कहानी

कॉमिक्स या चित्रकथा का इतिहास जानने बैठें, तो कई-कई सूरज उगेंगे और चांद ढल जाएंगे। और आज तो इस विधा का संसार इतना बढ गया है कि एक आर्मी चाहिए - बांचने और समझने के लिए।
अमेरिकी कार्टूनिस्ट 'स्कॉट मेकलाउड' ने कॉमिक्स के इतिहास की रोचक ग्राफिक बुक 'अंडरस्टैंडिंग
कॉमिक्स' लिखी। सारा कंटेंट चित्रकथा के रूप में लिखा गया है। यह एक अद्भुत प्रयोग है। उनके अनुसार 'बहुत सारी परिभाषाओं का एक सार है कि क्रमबद्ध चित्रों की सारणी ही कॉमिक्स है।' मजाक ही सही, मगर ज्यादातर प्रचलित परिभाषा है जो स्कॉट ने अपनी पुस्तक में भी लिखा है, 'कॉमिक्स वे रंग-बिरंगी पत्रिकाएं हैं, जिनमें कामचलाऊ चित्र, फ्रालतू कहानियां और चुस्त पतलूनों वाले लड्के हों।'


ऐसा क्यों हुआ... कहां हुआ और कब हुआ

अगर संदर्भ उठाकर देखें, तो रोम में 113 ई.पू. में पहली _ बार ट्रोजन के स्तंभ पर चित्रों के माध्यम से किसी बात या घटना को कहा गया। जहां ट्राजन की गौरवगाथा को पत्थर के एक खंभे पर ऊपर से लेकर नीचे तक उकेरा गया। 98 फ्रीट लंबे खंभे पर बहुत बारीकी से बनीं मूर्तियां। ऐसा लगता है जैसे किसी घटना को फ्रीज कर दिया हो और उसके जडवत मिनिएचर को खंभे पर चिपका दिया। वीरता के किस्से खंभे के चारों तरफ बनाए गए और खंडों में बंटा पिलर नीचे से ऊपर गाथा को सिलसिलेवार बढाते हुए प्रस्तुत हुआ। यह बात प्रिंटिंग के दौर से पहले की है, बल्कि बहुत पहले की है। भारत मैं चित्रकथाएं देवी-देवताओं के आख्यानों से सामने आईं। भगवान को सजाकर, वर्क लगाकर उससे सुंदर चित्र बनता, कमोबेश पृथ्वी की सारी सभ्यताएं ऐसा ही करती रही हैं और लोककलाओं में अपनी अंत:प्रेरणा से लोककथाएं रचते, गढते, जीते, और चित्रकथाएं सुनाते, संवारते और सजाते थे।
स्कॉट और अन्य संदर्भों के अनुसार 1519 में कोरटेस का 'डिसकवर्ड', उसके सौ साल पहले फ्रांस में 'बॉयक्स टेपस्टरी', यह कहीं इंग्लैंड में दो सौ फीट लंबी पट्टी पर बनी। फिर कॉमिक्स तो नहीं कहेंगे, मगर मिस्र के चित्रलिपि दृश्य। कहने को तो शब्द थे, मगर थे चित्रों में... एक नजर में तो मिस्र की चित्रलिपि दिखने में कॉमिक की परिभाषा पर खरी उतर रही है, सिलसिलेवार चित्रों से, जो कुछ कह सके, मगर यह चित्र भाषा है। सुना तो यह है कि जब लिखित भाषा नहीं थी, तब बस भाव थे और यही 'चित्र संवाद' इस आर्ट की भूमिका बनी। गुफाओं की दीवारों पर कहने और सुनने की आडी-तिरछी लकीरें... कभी प्रेम प्रदर्शन करतीं, तो कभी विरह के चित्र बनातीं, तो कभी दंड के दृश्य दिखातीं... कोई संवाद नहीं, बस चित्र।
नाट्यशास्त्र में कहा गया कि भाषा के अभाव में लोग अपनी बात इशारों में करते थे और वहीं से अभिनय की नींव पडी। अगर ऐसा था, तो अपने विचार तो वह लोग इशारों में प्रकट कर ही सकते थे, फिर यह चित्रों का क्या माजरा है?
अगर संदर्भों को टटोलें तो सारा डेटा यही कहता है कि, 'भाई, लिखित भाषा नहीं थी, इसीलिए चित्र थे', मगर मुझे लगता है संवाद के रूप में इशारे थे और गहरे विचारों व भावुक घटनाओं के लिए चित्र। अपने बहुत गंभीर भावों को बताने के लिए वे चित्र बनाते होंगे। :
स्कॉट अपनी किताब में लिखते हैं, 'मुझे कोई आइडिया नहीं है कि कॉमिक का जन्म कब, कहां और कैसे हुआ? लोगों को इसकी कसरत करने दो' और आधुनिक कॉमिक के पितामह स्विस कार्टूनिस्ट रुडोल्फ टफर कहते हैं, 'चित्रकथा जिसकी आलोचक उपेक्षा करते हैं और विद्वान शायद ही नोटिस करते हैं, जिसका सदैव प्रभाव रहे मुमकिन है, लिखे हुए साहित्य से भी अधिक।' वह फिर कहते हैं, 'और आगे कहूं तो चित्रकथाएं बच्चों और निम्न वर्ग को अधिक अपील करते हैं।'
कब हुआ? यह तो यक्ष प्रश्न है... शायद पहली बार प्रेम का इजहार किया होगा तब, और उस आनंद को चित्रों में उकेर दिया होगा। या पहली बार दिल टूटा होगा, तब बना होगा चित्र...
या किसी के भय की प्रस्तुति रहा होगा कोई चित्र। मिस्र के पिरामिडों में जब शासक के साथ उसके आराम की चीजें और सेवक भी दफन किए जाते रहे, तब वहां चित्रों से उस शाही परंपरा को दीवारों पर उकेरा जाता रहा। हम तक फेरोओं के भित्ति-चित्रों और बुतों से यह बातें पहुंचीं।
मिस्र की चित्रात्मक लिपि और चीन की चित्रलिपि उनकी भाषा का उद्गम है।
पत्थर को जब खुदा बनाया होगा और एक छोटी-सी बिंदी लगाकर आदिमानव ने सबसे पहला चित्र बनाया होगा।

चित्र परमानेंट हो गए

यह तब हुआ, जब प्रिंटिंग का आविष्कार हुआ। दीवारों और गुफाओं से चित्र कागजों पर आए और विशेष वर्ग से आम लोगों तक पहुंच गए। विषय नहीं बदले थे। अब भी प्रभु और नायकों से जुडे विषयों पर चित्र बनते थे।
भारत और विकासशील देशों में अभी तक यह आविष्कार नहीं पहुंचा था। हां, उससे बहुत पहले भारत में भोजपत्रों पर रंगों से लिखा जाने लगा था, जो ईश्वरीय दर्शन और भाव से जुडा था। चित्रकथाएं थीं, जो फडों यानी कपडों पर बनती विशेषकर राजस्थान के मेवाड अंचल में। कई मीटर लंबे कपडे को पाबू जी लोकनायक की विजयगाथा को प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता और भोपा-भोपी उसे पढते, अर्थात यह लोक-परंपरा थी। कथा, पर कोई डायलॉग नहीं लिखे थे, बस चित्र थे और वाचक थे या फिर महाराष्ट्र के वरली अंचल के वरली 'चित्र' और इसी तरह अन्य हिस्सों में भी।
यह बहुत लंबी और बडी चर्चा है कि चित्रकथाएं या कॉमिक्स और कार्टून अलग-अलग हैं क्या?

फिर चित्रों में व्यंग्य आ गया, कहलाने लगा 'कॉमिक

'स्पीच बलून' ...एक छोटा-सा गुब्बारा, चित्रकथाओं में पात्रों के संवाद का टूल। संवादों से पता चलता है कि जैसे ही विचारों का रचनात्मक होना शुरू किया, बस यह विधा सुंदर, रंगों भरी और बहुत क्रिएटिव होने लगी। राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों पर व्यंग्य, चूंकि व्यंग्य था, इसीलिए कॉमिक और अचानक सभी चित्रकथाएं कॉमिक कहलाने लगीं।
18वीं सदी में सबसे पहले अमेरिका की कॉमिक पट्टी, जो अखबारों में छपती थी, खूब पढी और पसंद की जाने लगी बड फिशर की 'मट एंड जेफ' रोज अखबार में छपती थी और उसी क्रम में आई रिचर्ड एफ. ऑटकॉल्ट की 'द येलो किड:' दोनों कथाएं व्यंग्य थीं और सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक कठिनाइयों का समाधान हंसी-मजाक से देते थे। अठारहवीं सदी के आरंभ में, हॉ कुसाई का 'मंगा' छोटी स्टिप के रूप में 'कार्टून' या चित्रकथा कहीं जापान में छपी।
दुनिया में कहा जाने लगा कॉमिक, जो आपको आनंद दे। जैसे जापानी दूसरे विश्वयुद्ध तक व्यंग्य के चित्रपट पेश करते थे। लगा 'कॉमिक' उपयुक्त शब्द है चित्रों से कही जाने वाली एक कथा, एक कथाकार, एक चित्रकार। सहज चित्र जिनके भाव बहुत अतिरंजित हैं कार्टून कहलाए।

भारतीय कॉमिक्स की दुनिया

भारत में कॉमिक्स की एक समृद्ध दुनिया 1970 और 1980 के दशक के बीच रही। राज कॉमिक्स के किरदार नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा, परमाणु, भेडिया और तिरंगा बच्चों के सपने में आकर जीवंत हो जाया करते थे। डायमंड कॉमिक्स के जरिए बचपन चाचा चौधरी, साबू और मोटू-पतलू जैसे किरदारों के बीच मनोरंजन और सीख की बातें बडी सहजता के साथ अपनाता था। बाद के दिनों में कॉमिक्स को टेलीविजन ने कॉर्टून की दुनिया में रिप्लेस कर दिया।

चित्र जो बात को जेहन में बसा दें

यह तो सनातन सत्य है कि विजुअल कम्युनिकेशन सबसे प्रभावशाली और स्थाई याद है। प्रिंटिंग और ढेर सारे कॉमिक पात्रों, कथाओं के आने के बाद भी भारत में भी मध्य उन्नीसवीं सदी में एक उच्च तबके तक जिनके पास विदेशी पत्र-पत्रिकाएं आती थीं। फिर अखबारों में अंग्रेजी कॉमिक कथाएं आने लगीं। उसके बाद इंद्रजाल कॉमिक्स ले आया फेंटम और मेंड्रेक...
और यह कथाएं हिंदी में आने लगीं ...जैसे कथा कहने की दुनिया ही बदल गई। बेताल उनकी प्रेमिका डायना और गुर्रन हमारे खेलों का हिस्सा बन गए। हम मेंड्रक की जादुई दुनिया के दीवाने हो गए। और फिर भारतीय कार्टूनिस्ट की पत्रिकाओं में कॉमिक पट्टियां, जिनमें विशेषकर आबिद सुरती जो लंबे समय तक अंतिम पृष्ठ पर छपते रहे, कार्टून कोना 'ढब्बू जी' में। आर.के. लक्ष्मण का कॉमन मैन और अमर चित्रकथा ने भारतीय कथाओं को चित्रों में जीवित कर देश को भारतीयता का उपहार दिया। कॉमिक्स का रचना संसार आज भी जारी है।

हमारे साथ जीने लगे

अचानक जैसे एक प्यारा-सा विस्फोट हुआ। वॉल्ट डिज्नी ने उन चित्र पात्रों की दुनिया ही बसा दी। सभी जानते हैं, एक नई विधा का आविष्कार कर दिया। वह चित्र कथाएं जिन्हें इंटेलेक्चुअल श्रेणी में नहीं रखा गया था आज स्थाई संवाद का माध्यम बन गई।
विकासशील देशों के कलाकार बहुत जल्दी शाही और देवी-देवताओं के कथानक से बाहर आ गए। उन्होंने रहस्य, जादू, जानवरों का मानवीयकरण और साहसिक कथाओं को आधार बनाकर चित्रों को कहा। आज ग्राफिक उपन्यास और दर्शन भी ग्राफ्रिकली लिखे जा रहे हैं। सहज चित्र हमें जीवन की सीख दे रहे हैं विलियम और जॉसेफ के टॉम और जेरी कहते हैं, 'मुसीबतें दिमाग से जीती जाती है', तो रेने गास्कीनी के ऐस्टरीक और ओबलिक्स कहते हैं, "बल और भोलापन साथ-साथ काम करता है', तो ली फाक का फेंटम और मेंड्रेक एडवेंचर कथाएं गढते हैं। अब तो इस विधा को बार-बार खंगाला जा रहा है। नई संभावनाएं बुनी जा रही हैं। ...एकदम गोल चांद ने आंखें घुमाकर इधर-उधर देखा और टप्प से दूधिया नदी के पानी में डुबकी लगा दी, पानी के छपाक-छपाक में पूरा भीग गया चांद, सफेद लकीरों की लहरें दूर और पास आने लगीं, मेंढक की टर्र-टर्र की आवाज, एक झींगुर पानी की मुस्कुराती बूंद के धवके से दूर जा गिरा। चांद ने आंखों की पुतली ऊपर चढाकर आसमान को देखा और मधुर संगीत के साथ धुला-धुलाया चांद फिर जा बैठा अपने ठिकाने ...ऐसा अद्भुत दृश्य तो कॉमिक्स में ही गढा जा सकता है। और अंत में आर्ट स्पिगलमैन के अनुसार, 'कॉमिक्स साक्षरता के प्रवेश द्वार की दवा है।'
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साभार - अहा! जिंदगी, दिसंबर 2015