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Thursday 19 December 2019

पुरानी भूली-बिसरी यादें

ये उस दौर की बात है जब चवन्नियाँ बँद नहीं हुई थीं और दो चवन्नियों के मेल से बनी अठन्नी में दिन भर के लिये एक अदद कॉमिक किराये पर ली जा सकती थी। अस्सी का दशक था जब धूप में खेलने के लिये माँ बाप सनस्क्रीन लोशन नहीं दिया करते थे। गरमी की दोपहरों में किसी भी दोस्त के घर की छत का छाँव वाला कोना पकड़ा जाता था और अठन्नियों के किराये पर लाई कॉमिक्स पढ़ कर दोपहर गुज़ारी जाती थी। कम्प्यूटर आज जितने आम न थे तब, सो समय बिताने के लिये कम्प्यूटर पर किट पिट करने की बजाये उससे तेज़ दिमागवाले चाचा चौधरी की संगत की जाती थी, झपट जी - पिंकी और बजरंगी पहलवान को चकमा देते आँखों को ढँके बिल्लू के साथ गरमी की छुट्टियाँ बिताई जाती थी। निक्कर पहनने की उम्र थी सो नागराज - ध्रुव से तब जान पहचान नहीं हुई थी।
कॉमिक्स मिल पाना इतना आसान भी नहीं था तब, या तो मुहल्ले के सयाने लड़के सुतली में कॉमिक्स लटका के किराये पर कॉमिक्स का साम्यवाद चलाया करते थे, जिसमें कभी किसी कॉमिक के पेज पर सूखी हुई दाल के चिपके  निकलना या आलू के शोरबे से चिपके पन्ने निकलना आम बात थी, कॉमिक्स पढ़ कर हाथ धोने पड़ते थे। या फिर अगर किसी रिश्तेदार ने जाते जाते कुछ रुपये टिका दिये तो पूँजिवादी बन कर एक आध कॉमिक खरीदने की औकात लिये हम रेलवे के ए.एच.व्हीलर के स्टॉलों के चक्कर लगाते थे। कॉमिक्स खरीदना भी कोई खेल नहीं था। खरीदने के पहले हर चीज़ पर ध्यान दिया जाता था - कॉमिक कितने पेज की है, कितनी देर चलेगी (कितनी देर तक पढ़ी जा सकती है), साथ में स्टीकर है या नहीं, इसकी एक्सचेंज वैल्यू और रिसेल वैल्यू क्या होगी। ऐसा लगता था कि कॉमिक नहीं कार खरीदने निकले हैं।
गरमी की छुट्टियों में एक बार ट्रेन लेट होने की वजह से हमें उड़िसा के झारसुगुड़ा स्टेशन पर रात में कुछ घण्टे बिताने पड़ गये। रेलवे स्टेशनों का अपना अलग चार्म होता है, और उसपे सोने पे सुहागा होते हैं ए.एच.व्हीलर के स्टॉल्स। जब बीस मिनट में उस स्टॉलरूपी तीर्थ की बारम्बार प्रदिक्षणा और गरीब दयनीय मुखमुद्रा बनाने के कठोर तप से मैं कुछ पचासवीं बार गुज़र के, छः वर्षीय अक्ल में आने वाले हरसंभव पैंतरे को आज़मा चुका तो मेरे माता-पिता को मुझ पर दया आ ही गई, उन्होंने कॉमिक्स के लिये तथास्तु कहा या मुझसे पीछा छुड़ाने के लिये, हम उसकी गहराई में नहीं जायेंगे।
जितनी देर में मम्मी मेरे साथ स्टॉल तक चल कर पहुँचीं उतनी देर में मैंने अपनी सोच की औकात से दस बारह पँच वर्षीय योजनायें बना बिगाड़ कर खारिज भी कर दी थी। बच्चा था मगर रियलिस्टिक मैं तब भी था, जानता था पूरी दुकान नहीं मिलेगी, क्योंकि सोच रहा था दस बारह कॉमिक्स तो मिल ही जायेंगी - लक पुश किया तो एक आध पराग या चंपक पर भी हाथ साफ किया जा सकता है।
मगर माँ तो माँ होती है, मातृत्त्व का बादल चाहे जितना उमड़ घुमड़ जाये, बरसात उसमें से पाँच रुपयों की ही होनी थी और वही हुआ। पहली बार महँगाई की मार झेल कर मेरा मन पान मसाले की खाली पुड़िया जैसा यूज़लैस फील कर रहा था। मेरे बालमन के पीछे छिपा दँगाई अपनी माँगे मनवाने के लिये हड़ताल करने और हँगामा खड़ा करने जैसे कई ऑप्शन्स के मल्टिपल चॉईस क्वेश्चन्स में उलझा हुआ था।
मेरी मनोदशा देख कर ए.एच.व्हीलर वाले भैया पसीज गये उन्होंने मम्मी से कहा कोई बात नहीं जब तक ट्रेन नहीं आती इसे यहीं स्टॉल में बैठने दीजिये एक-दो कॉमिक्स पढ़ लेगा, फिर जो पसंद आये खरीद लेगा। अचानक सबकुछ शाँत हो गया - हवाओं में संगीत तैरने लगा - मुझे मेरी मनमाँगी मुराद मिल गई थी। मम्मी समझ चुकीं थीं कि ए.एच.व्हीलर वाले भैया खुद फैसला लिख कर अपनी निब तोड़ने में लगे हैं, इसलिये उन्होंने ए.एच.व्हीलर वाले भैया को समझाने और लिहाज की गरज से आर यू श्योर टाईप कुछ पूछा था ऐसा याद है मुझे, क्या पूछा था मुझे ठीक से याद नहीं। एक ही बात याद है कि मैं चाहता ही नहीं था कि इस मामले में कोई सेकण्ड ओपिनियन बने, सो सेकण्ड के सौंवे हिस्से में मैं जम्प मार के स्टॉल के भीतर था औेर कॉमिक्स के गठ्ठर के पास एक लकड़ी के बक्से पर विराजमान हो चुका था।
उसके बाद अगले दो घण्टों में कॉमिक्स पढ़ने की मेरी वहशी स्पीड देख कर बेचारे ए.एच.व्हीलर वाले भैया की दहशत का जो आलम हुआ उसका ज़िक्र न ही किया जाये तो बेहतर है। उन दो घण्टों में मैंने वहाँ रखी सारी नई पुरानी कॉमिक्स चाट डाली। मम्मी जब मुझे वो पाँच रुपये की कॉमिक दिलाने वापस स्टॉल पर आईं तब तक मैंने कैलकुलेट कर लिया था कि अगर ये पाँच रुपये मैं बचा लूँ तो किराये पर दस कॉमिक्स और पढ़ सकता हूँ। मैंने मम्मी को समझाने की कोशिश की कि अब इन पैसों से कॉमिक्स खरीदने की ज़रूरत नहीं, मगर माँ तो माँ होती हैं, उन्होंने मेरी बेशर्मी को कवर अप करते हुये मेरे लिये एक नंदन और अपने लिये एक मनोरमा ली और हम अपने प्लेटफॉर्म की ओर बढ़ गये। हमारी गाड़ी के आने का अनाऊन्समेण्ट हो चुका था।

3 comments:

Pratik Jain said...

बेहतरीन भाई कॉमिक्स का मेरा क्रेज़ भी कुछ ऐसा ही रहा

capribluz said...

beautiful memories. we all have experienced something of this kind in our childhood. thank you for taking us down those memory lanes.

sanjeev kumar singh said...

बहुत मज़ा आया लेख पढ़कर ,, ऐसा ही सभी कॉमिक्स प्रेमियों के साथ था ,,,,,,www.facebook.com/comicsduniya/