#कॉमिक्स_वाले_अंकल
वो हमारे कॉमिक्स वाले अंकल थे। नाम तो उनका कभी पूछा नहीं। ये भी पता नहीं हिन्दू थे, मुसलमान थे या किस जाति से थे। ये सब बातें हमारे लिए बेमतलब बेमानी थीं। हम बच्चों को बस इतना ही पता था कि गली में उनकी छोटी सी दुकान थी। यूं दुकान तो किरयाने की थी, पर उसी के एक कोने में ढेर सारी कॉमिक्स भी रखी रहती थीं, और यही बात उनकी उस छोटी पुरानी सी दुकान को खास बनाती थी।
जब मम्मी पैसे देकर घर का कुछ सामान लाने को भेजती तो हम दूसरी बड़ी दुकानों को छोड़कर कॉमिक्स वाले अंकल की छोटी सी दुकान में घुस जाते। जब तक अंकल सामान तौलते तब तक हम कॉमिक्स उलट पलट कर देखते रहते। जाने कैसी खुशी मिलती थी वहां।
अंकल की दुकान पर ग्राहक कम ही होते थे। सब कहते थे उस पुरानी दुकान में कुछ घुटन सी रहती है। पता नही क्यों हमें वो घुटन कभी महसूस ही नहीं हुई। कभी जेबखर्च को कुछ पैसे मिलते तो लेकर हम सीधा अंकल की दुकान पर पहुंच जाते। उस वक्त वो 50 पैसे में कॉमिक्स किराये पर दिया करते थे। घर ले जाकर पढ़ने का एक रुपया लगता था। हम कम पैसो में ज़्यादा कॉमिक्स पढ़ने के लालच में वहीं बैठकर घण्टों कॉमिक्स पढ़ते रहते थे। वहीं बैठकर पढ़ने पर अंकल भी खुश रहते थे। शायद इससे उन्हें अकेलापन नहीं लगता था। गली की उस छोटी सी पुरानी दुकान में एक अलग ही किस्म का सुकून था।
वक्त बीत गया। हम बच्चे से बड़े हो गए। पुराना शहर भी छूट गया। कॉमिक्स का शौंक कुछ सालों के लिए पूरी तरह छूट कर फिर दोबारा भी शुरू हो गया। पर ज़िन्दगी की भागमभाग में उन सब यादों पर जैसे धूल की परत सी जम गई थी।
फिर अभी 2 साल पहले किसी काम से पुराने शहर जाना हुआ। तब फिरसे कॉमिक्स वाले अंकल और उनकी दुकान की याद आई। मन में वही पुरानी उमंगें लिए गली की उस सबसे पुरानी दुकान पर पहुंचा।
अंकल अब नहीं रहे। दुकान आंटी और उनका लड़का मिलकर सम्भालते हैं। एक कोने में कुछेक कॉमिक्स भी पडी धूल खा रही हैं। पर वो पहले जैसा सुकून नहीं है। मैं ज़्यादा देर दुकान में खड़ा नहीं रह सका। उस छोटी, पुरानी दुकान की घुटन अब महसूस होने लगी है।
नोट: तस्वीर केवल प्रतीकात्मक मात्र है।
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