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Sunday, 20 September 2020

शीर्षक - बांकेलाल और उल्टी चाल

 शीर्षक - बांकेलाल और उल्टी चाल 




एक सुबह बांकेलाल ने विशालगढ़ का राजा बनने के लिए बड़ी ही चालबाज युक्ति निकाली । 


बांकेलाल - ओ मेरा भोला है भंडारी करे नन्दी की सवारी शम्भूनाथ रे ओ शंकर नाथ रे । 

शिव जी ( दिल से पुकारे जाने पर तुरंत प्रकट होते है ) - क्या बात है बांके आज सुबह-सुबह मेरा नाम कैसे पुकार बैठे ?


बांकेलाल - वो प्रभु क्या है कि कल वन में ऋषि भागलँगोटी के लँगोट को बंदर चुरा ले गया और उस लँगोट को मैंने उस बन्दर से छीन कर ऋषिमुनि को लौटाया । लँगोट पहनते ही वो भागने लगे और भागते भागते उन्होंने बताया कि " सुबह सुबह ले शिव का नाम शिव आएंगे तेरे काम " 

शिव जी - और तुमने मेरा नाम ले लिया ? 

बांकेलाल - हिहिहि । 


बांकेलाल की हिहिहि से भगवान शिव जी के गले से लिपटे नाग जी क्रोधित हो फुफकार उठे ।


क्रोधित नाग ( फुफकारते हुए ) - भगवान शिव जी के सवाल का जवाब देने की जगह हिहिहि करने की हिम्मत कैसे की  तूने ? तेरी तो अभी के अभी डसता हु तुझे सिकड़े पनौती । 


बाँकेलाल - क्ष क्षमा प्रभु क्षमा । 

शिव जी - तथास्तु । 


बांकेलाल ( भयभीत हो आश्चर्य में ) - नही नही प्रभु । मैं तो नाग जी से क्षमा मांग रहा था वर में विशालगढ़ का सिंहासन मांगना था मुझे । 

शिव जी - पर दर्शन देने पे तो सिर्फ एक वर देने की रीत है बांके जो हम दे चुके । अगर हम तुम्हे क्षमा ना करते तो अब तक मेरा कंठहार नाग तुम्हे डस चुका होता और तुम्हारी आत्मा बैकुंठधाम को प्रस्थान कर चुकी होती । चलो फिर आज के लिए इतना ही । अहम गच्छषि । 


अहम गच्छषि अर्थात अपने घर जाना । हिहिहि। यानी शिव जी हिमालय प्रस्थान कर गए । 


बांकेलाल - बेड़ागर्क । सोचा था वर स्वरूप विशालगढ़ का सिंहासन मांग लूंगा शिव जी से ताकि रोज रोज षड्यंत्र बनाने की जरूरत ही ना रहती । पर फिर से मेरी योजना का बेड़ागर्क हो गया । 


हिमालय पे 


माता पार्वती - आज तो अच्छे फसे थे आप प्रभु । 

शिव जी - सत्य कहा आपने देवी । भक्त तो यह मेरा है पर बुद्धि इसमें महाभारत के शकुनि की है । धन्य है मेरा कंठहार जिसकी पैदा की गई स्तिथी के कारण मैं बांके को वर देने से बच गया वरना आज ये विशालगढ़ का राजा बन ही बैठा था । 


शिव जी हिमालय के ठंड में भी अपने सर पे आये पसीने की बूंद को पोछते है और माता पार्वती उन्हें देख मुस्कुरा रही होती है । 


धरा पे नीचे बांकेलाल फिर से नई षड्यन्त्रकारी योजना बनाने में लग चुका है जो इस बार की तरह उल्टी न पड़े । 


समाप्त ।

Tuesday, 1 September 2020

पत्रिकाएं आखिर बंद क्यों हो जाती हैं.....


आइये थोड़े ईमानदारी से जाने
                         कि पत्रिकाएं आखिर बंद क्यों हो जाती हैं
पहली बात तो यह समझ लीजिये कि कोई भी संस्थान इसलिए कोई पत्रिका बंद नहीं करता कि उसकी मर्जी है बंद करने की. नहीं,दरअसल पत्रिकाएं बिकती नहीं,बिकती नहीं तो विज्ञापन नहीं मिलते,विज्ञापन नहीं मिलते तो ये संस्थानों पर बोझ बन जाती हैं.ऐसे में इसका अंत बंद होना ही होता है. 
       1970 में भारत की साक्षरता दर करीब 35 फीसदी थी,1980 में करीब 44 फीसदी 1990 में करीब 52 फीसदी जबकी आज करीब 84 फीसदी है.लेकिन 1970 से लेकर 1990 तक देश में हिंदी की एक दर्जन से ज्यादा पत्रिकाएं थीं जो 1 लाख से 4 लाख तक बिकती थीं.धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,मनोहर कहानियां,माया,इंडिया टुडे,सरिता,कादम्बिनी,चंपक और चंदामामा तथा तमाम और.लेकिन आज जबकि देश की साक्षरता दर 84 फीसदी के करीब है तो हिंदी में कोई ऐसी पत्रिका नहीं है जो 50,000 कॉपी बिकती हो.
          सवाल है पत्रिकाएं बिकती क्यों नहीं हैं? क्या लोगों की रीडिंग हैबिट कम हुई है,जवाब है बिलकुल नहीं.लोगों कि उलटे रीडिंग हैबिट बढ़ी है.सवाल है क्या वर्चुअल रीडिंग एक कारण है.जवाब है बस किसी हद तक क्योंकि अभी 2017-18 तक वर्चुअल कंटेंट मोबाइल आदि में इतना ज्यादा नहीं था.दरअसल इसका सबसे बड़ा कारण है कंटेंट. मैगजीनों में कहीं ओरिजनल कंटेंट है ही नहीं.हिंदी की एकमात्र पत्रिका अहा जिंदगी है जिसमें किसी हद तक ओरिजनल कंटेंट है.
            बाक़ी जितनी पत्रिकाएं हैं उन सबमें उन्हीं घटित घटनाओं का टेबल में तैयार कंटेंट है जो पत्रिकाओं में छपने के पहले दर्जनों माध्यमों से दर्जनों बार हम तक पंहुच चुका होता है.अखबारों के जरिये,इंटरनेट के जरिये,टीवी चैनलों के जरिये या और भी कई तरीकों से.सवाल है पहले से पढ़े हुए घिसे पिटे कंटेंट को कोई कितनी बार पढ़े ? क्या हमारी तथाकथित करेंट पत्रिकाओं में ऐसी कोई सामग्री,ऐसी कोई धारणा,अवधारणा है,जो इन्टरनेट में उपलब्ध न हो ? धीरज धरिये हजारों लाखों की तादाद में चालू हुई वेबसाइटों का भी यही हश्र होना है जो आज पत्रिकाओं का हुआ है.