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Saturday, 21 June 2025

दीपक सिंह की कलम से

 मित्रों ,,  90 के दशक में हम लोग कुछ गलियों में घूमने जाया करते थे …. 

ये गलियाँ होती थीं लोटपोट, राज कॉमिक्स, डायमंड कॉमिक्स, चंपक, नंदन, चंदामामा, मनोज कॉमिक्स, तुलसी कॉमिक्स …. 

आज के बच्चे शायद यकीन न करें, 

लेकिन सच यही है कि एक ज़माना था जब वॉट्सऐप ग्रुप्स, इंस्टा रील्स और नेटफ्लिक्स की जगह यही हमारे मनोरंजन के OTT प्लेटफॉर्म हुआ करते थे …. 

वो जो “नया एपिसोड” होता था, वो अगले महीने की कॉमिक्स होती थी, 

और उसके आने का इंतज़ार किसी टेलीग्राम चैनल वाले लिंक से नहीं, मोहल्ले की बुक स्टॉल पर जाकर करना पड़ता था.


90 के दशक में भारत के हर गली-मोहल्ले में दो दुकानें ज़रूर होती थीं  …. 

एक वीडियो गेम की दुकान और दूसरी कॉमिक्स किराए पर देने वाला बुक स्टॉल …. ये दुकानें उस ज़माने के ‘नेटफ्लिक्स’ थीं …. किराए का रेट बड़ा सिंपल था 50 पैसे एक दिन, कुछ बड़े दुकानदार नई कॉमिक्स का एक रुपये तक भी ले लेते थे, और 

अक्सर कह देते थे, “बेटा, जल्दी लौटा देना, वरना फाइन लगेगा” !! 


सुपर कमांडो ध्रुव, नागराज, डोगा, फाइटर टोड्स, बाँकेलाल, चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, रमन, हवलदार बहादुर, फौलादी सिंह, जादूगर मैंड्रेक, ये सब हमारे इन तिलिस्मी गलियों के साथी हुआ करते थे …. 

ये किरदार हमारे दोस्त भी थे, हमारे शिक्षक भी, और कहीं-कहीं हमारे रोल मॉडल भी !. उनके साथ हम बड़े हुए ….

उनके साथ हम हँसे, लड़े, गिरे, उठे और सपने देखे.


हमारे सुपरहीरो कोई अमरीका से नहीं आते थे हम बैटमैन-सुपरमैन से पहले सुपर कमांडो ध्रुव के फैन थे,

हमारे जैसा ही एक नवयुवक लड़का जो अपने दिमाग और कराटे से पूरे अपराध जगत को हिला देता था …. 


नागराज …. ज़रा सोचिए, एक ऐसा बंदा जो अपने शरीर से साँप निकाल कर लड़ाई करता था …. आज अगर कोई कहे कि मेरे शरीर से साँप निकलते हैं तो मोहल्ले के बच्चे उसे भगा-भगा कर मारेंगे, पर तब हम उसे हीरो समझते थे !


और फिर आया “डोगा” …. --

एकदम कड़क, मास्क वाला बंदा, जिसने बचपन में इतना अत्याचार देखा था कि 

अब वो पूरी मुंबई में गुंडों की खाल उधेड़ देता था ,, मुंबई का बाप बन कर


गंभीरता से हटकर आते थे हमारे दिलों के राजा “चाचा चौधरी” भाईसाहब, ,,! 

जिस बंदे का दिमाग कंप्यूटर से तेज़ चलता हो, उसे भला कौन नहीं पढ़ेगा ? 

और उनके साथ उनका  साबू, 

जो जब गुस्सा करता था तो जुपिटर ग्रह पर भूकंप आ जाता था।

आज के बच्चों से कहो तो कहेंगे “कौन से ग्राफिक्स कार्ड पर चलता है ये गेम ?”


फिर आते थे “बिल्लू” अपने बालों में कभी कंघी न करने वाला लड़का, !! 

जो मोहल्ले का क्रिकेट स्टार था ….

पिंकी”- नखरेबाज़ बच्ची, जो हर पेज पर मम्मी से डाँट खा रही होती थी और 

“रमन -- जो हमेशा देशभक्ति में ओतप्रोत रहता था.


 “बाँकेलाल - का तो क्या ही कहना ? भोलापन उसके चेहरे पर लिखा होता था और शरारतें उसके दिमाग में” 

हर बार सोचता था कि 

अबकी बार तो राजा विक्रम सिंह की वाट लग जाएगी, 

लेकिन हर बार उल्टा बाँकेलाल की ही लंका लग जाती थी …. 😡

और लास्ट पेज पर राजा विक्रम सिंह की वो गीली पुच्ची ! 😜

उसकी कहानियाँ पढ़ते-पढ़ते हम खुद बाँकेलाल बन जाते थे !


मोटू-पतलू, डॉक्टर झटका और घसीटा को कौन भूल सकता है भला ?  

हर बार उनका स्वयं को हीरो साबित करने के लिए जीतोड़ प्रयास और अंतिम पेज पर चलती हुई जूतम-पैजार एक अलग ही दृश्य पैदा करती थी,,!! 


कॉमिक्स किराए पर लाना एक शौक नहीं, संस्कार था ….

जेबखर्च में से पैसे बचा-बचाकर किराए की कॉमिक्स लेकर आना,

फिर पढ़ने के बाद किताब को बिना मोड़े तह करके लौटाना यह हमारे ‘अच्छे संस्कार’ का प्रमाणपत्र था …. !! 

अगर किसी के घर नई कॉमिक्स का सेट आता था,तो वह गली का सेठ कहलाता था.


कुछ प्रकाशक कंपनियाँ तो इतनी चालाक थीं कि “कॉमिक्स के साथ फ्री गिफ्ट” का झाँसा देती थीं …. 

कभी छोटा सा मैगनेट स्टिकर, 

कभी किसी हीरो का छोटा सा बैज …. 

उन स्टिकरों को घर की गोदरेज की अलमारी

या फ्रिज पर चिपकाना वैसा ही सम्मान था जैसे आज कोई लड़का अपने इंस्टा बायो में “क्रिएटर” लिखता है ! 😊


कॉमिक्स अकेले नहीं पढ़ी जाती थी …. 

वो एक सामूहिक क्रिया थी …. 

गली के चार-पाँच दोस्त मिलकर पहले कॉमिक्स किराए पर लाते थे, 

फिर कोई छत पर, कोई बरामदे में, 

कोई किसी पेड के नीचे, या

पार्क मे स्कूल बैग पर सिर रख कर पढ़ता था  पढ़ते-पढ़ते आवाज आती — “ओय जल्दी कर, तू कबसे वही पेज पर अटका हुआ है…”


अगर किसी ने कॉमिक्स में पेज फाड़ दिया या मोड़ दिया तो समझो गली में उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था …. 

“अब, इसको मत देना अगली बार कॉमिक्स पढ़ने को, 

ये पेज फाड़ देता है।”


कॉमिक्स खरीदना अपने आप में त्यौहार जैसा था ….

जब मम्मी-पापा बाज़ार ले जाते और कोई नई कॉमिक्स दिख जाती, 

तो मन में वही भाव आ जाता जो आज किसी के अमेज़न कार्ट में iPhone देखते समय आता है …. 

अगर घर वालों ने खरीद दी तो पूरा दिन हम उस कॉमिक्स को सूंघ-सूंघ कर पढ़ते थे …. जी हाँ, सूंघते थे, क्योंकि ,,

नई कॉमिक्स की खुशबू अलग ही नशा करती थी !


अब सोचता हूँ तो लगता है कि

 कॉमिक्स सिर्फ कहानियाँ नहीं थीं, 

वो हमारी कल्पनाशक्ति का एयरपोर्ट थीं …. नागराज बनकर हम दीवारों पर चढ़ने की कोशिश करते थे, 

ध्रुव बनकर स्कूल के बदमाशों से भिड़ने का सपना देखते थे तो कभी 

चाचा चौधरी बन कर बदमाशों का पर्दाफाश करने के ख्याली पुलाव पकाते थे.


आज के बच्चे टैबलेट में उँगलियाँ घुमा कर गेम खेलते हैं, 

पर हमने अपने सपनों को कॉमिक्स के पन्नों में उँगलियाँ घुमा-घुमा कर रंग दिया था !


अब वो कॉमिक्स किराए पर देने वाली दुकानें भी कहाँ हैं ? 

शायद उनकी वो कॉमिक्स अब भी किसी गोदाम में धूल फाँक रही होंगी …. 

और वो स्टिकर, वो बैज, शायद किसी पुराने बस्ते में पड़े हों, 

जिन्हें अब खोलने पर हम कहेंगे 

“अरे यार, ये तो बचपन की खुशबू है…”


आज डिजिटल दुनिया में सब कुछ है, पर वो बात कहाँ …. 

वो दोस्तों के साथ मिलकर कॉमिक्स पढ़ने का स्वाद …. 

वो किराए पर कॉमिक्स लाने का उत्सव …. 

वो बाँकेलाल की शरारतों पर हँसते-हँसते पेट दुख जाने वाला अहसास ….

वो नागराज का सांपों से लड़ना …. 

वो चाचा चौधरी का कंप्यूटर से तेज़ दिमाग…


वो सब अब बस “यादों की कॉमिक्स” में रह गया है।

पर सच कहूँ  …. कॉमिक्स वाले बचपन से बड़ा कोई सुपरहीरो नहीं हुआ,!! 🥲🥲


कमेंट्स का स्वागत रहेगा,, दोस्तो, 


सा,,भा,,र ,saigal,, g,

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