वैसे तो ये पोस्ट हेलो बुक माइन के लिए लिखी थी लेकिन सोचा थोड़ा पब्लिसिटी बटोर ले और उनका आईडिया भी पसंद आया तो इस ग्रुप में भी चेप रहा.पसंद आये तो लाइक करना नहीं तो बांकेलाल कॉमिक्स वाले राक्षस की तरह छैया छैया नाच करके डरा दूंगा.चलते है भेड़िया देवता के आशीर्वाद के साथ🐶
मेरे बहुत से मित्र जो खुद कॉमिक्स प्रेमी है वो आये दिन पुछा करते है मेरे कॉमिक्स प्रेम के बारे में.मेरे कलेक्शन के बारे में.कई बार मुझे इग्नोर करना पड़ता है तो कई बार छोटे छोटे पार्ट में कहानी सुनकर शांत कर देता हु.आज यहाँ सबके कॉमिक्स से जुड़े निजी अनुभव देखे तो सोचा अपना पिटारा भी आज ही खोल लिया जाये.बहती गंगा में हाथ धोना ज्यादा सही रहता है.😁😁
बात तब की है ज़ब मैं "4 साल का परमाणु" बन चूका था और "बुद्धिपलट" की तरह बचपन से ही "शैतान" था.पूरी तरह तो नहीं लेकिन थोड़ा थोड़ा "काला अक्षर भैंस बराबर" पढ़ना और चित्र देख कर समझना आता था. मैं अपने बड़े भैया, दीदी, पापा, मम्मी, दादी, बुआ, चाचा और पिंकी के साथ रहता था.उस समय लाइट बहुत आती जाती थी और ज्यादातर हम अपनी खटिया या पलंग बाहर बिछा कर सोते थे.शाम का समय था वो, ज़ब पहली बार मैंने भैया को कोई "सुपरहीरो" ड्रा करते देखा."सुपर कमांडो ध्रुव" था जम्प करने की पोज़ करते हुए जो भाई बना रहे थे.नीली पीली ड्रेस में वो मुझे बहुत अच्छा लगा.फिर समझ आया कि कॉमिक्स नाम की कोई चीज आती है जिसमे ऐसे एक्शन करते "सुपरहीरो" होते है जो लोगो को दुष्ट लोगो से बचाते है.जानकारी के लिए बता दू के मेरे भैया कॉमिक्स के बहुत बड़े फैन रहे है और किराये पे कॉमिक्स लाने और पढ़ने की आदत उन्ही की वजह से लगी थी.जो शुरुआत ध्रुव से हुई थी वो भैया के लगातार कॉमिक्स लाने से और बढ़ती गयी.मेरे घर में लगभग सारे कॉमिक्स प्रेमी रहे है. दादी धार्मिक चित्रकथा, चाचा एक्शन कॉमिक्स, मम्मी राजा रानी वाली, दीदी और बुआ डायमंड वाली, पापा हॉरर और भैया सुपरहीरो की कॉमिक्स के दीवाने थे.इन सबके चक्कर में मुझे भी कॉमिक्स का ऐसा नशा चढ़ा कि जो आज तक ख़तम नहीं हुआ.आप यकीन नहीं करोगे लेकिन मेरे क्राइम स्कूल की हर कॉपी, भाई की कॉपी, दीदी की कॉपी, पापा के ऑफिस पेपर्स, मम्मी की मैगज़ीन और यहाँ तक की घर के अखबारों तक में मैं कॉमिक्स के नाम, विलन के नाम लिखा करता था.आर्ट बनाया करता था.क्या ऐड हो या क्या कॉमिक्स के अंदर का आर्ट, मेरी ड्राइंग क्लास की कम और इन सुपरविलेन और सुपरहीरो से भारी रहती थी.पागलपन का नशा यही नहीं ख़त्म हुआ.आगे चल के मैं कॉमिक्स के सेट, कौन सी कॉमिक्स में किस आर्टिस्ट, राइटर, एडिटर, कलरिस्ट का क्या योगदान है, कॉमिक्स सीरियल नंबर, कॉमिक्स ईयर और पता नहीं क्या क्या लिख के लम्बी चौड़ी "मोस्ट वांटेड" लिस्ट बनाने लगा.घर की ऐसी कोई कॉपी नहीं बची जहा मेरी कॉमिक्स से रिलेटेड आर्ट या कोई जानकारी ना लिखी हो.बहुत बार तो रुई की तरह धुनाई भी होती थी.पता चला पापा को बर्थ सर्टिफिकेट बना के देने है और पीछे "मा कसम", "योद्धा की चीख" लिखी हुई हो.पता चला भाई को होमवर्क जमा करना हो और कॉपी में आगे नगरस्सी पे झूलता "नागराज" बना हो.जैसे जैसे बड़ा होता गया मेरा जूनून और पागलपन जो कॉमिक्स को लेके था वो बढ़ता गया.मैंने देखा कि किराये पे कॉमिक्स लाने में समस्या ये है कि उसको वापस करना पड़ता है जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं था तो मुझे कॉमिक्स कलेक्शन का पागलपन चढ़ गया.एक पागलपन ये भी था के मै अपनी खरीदी कॉमिक्स किसी को जल्दी हाथ नहीं लगाने देता था.इसके पीछे मंशा थी कि मेरी कॉमिक्स नयी जैसी बनी रहे, हाँ दुसरो की कॉमिक्स चुराने में, या मांगने में मुझे शर्म नहीं आती थी.होता ये था के इतनी मेहनत से खरीदी, या जुगाड़ करके लायी गयी कॉमिक्स ज़ब लोग मोड़ देते थे तो मुझे देख के हल्क वाला दौरा पड़ जाता था.फिर चाहे सामने मेरे से 4 गुना मेरा मामा का लड़का हो या क्लास का दादा, मैं डोगा की तरह दौड़ा कर मारता था.लोग कॉमिक्स छुपा के पढ़ते है, मैंने कॉमिक्स के लिए चोरी, डकैती, बड़ी बड़ी लड़ाई, सब कुछ किया है.सबसे मज़ा तब आता था ज़ब पापा क्लास में अच्छे नंबर लाने की "अनोखी शर्त" पर कॉमिक्स लाया करते थे.सच में उसी लालच के चक्कर में 70 परसेंट के नीचे कभी नंबर नहीं आये.फिर गर्मी की छुट्टिया हो तो मज़े से तखत पे बैठ कर या उल्टा लेट कर हलुवा खाते हुए कॉमिक्स पढ़ो, कितना मज़ा आता था बयान नहीं कर सकता.एक बुरी चीज इसमें ये भी है कि ये कॉमिक्स वाला प्यार इतना बढ़ गया था कि कॉमिक्स खरीदने के लिए घर से चोरी तक करनी पड़ी.उस बात का आज तक अफ़सोस है.हाँ पागलपन इतना किया है कि 16 की एक कॉमिक्स लेने के लिए 2 दिन 4km पैदल स्कूल जाता था.भूखे पेट रहता था और घर में किसी को पता भी नहीं चलने दिया.बड़े होने पे सबसे बड़ी दिक्कत यही है के दिमाग़ ज्यादा खुरापाती हो कर "मास्टरमाइंड" जाता है.शायद इसी का नतीजा था कि कॉमिक्स लेने के लिए डेली नयी नयी खुरपेंची किया करता था.ऐसे ही एक छोटा सा "हातिमताई" वाला किस्सा भी बताना चाहूंगा.एग्जाम शुरू होने वाले थे और उनकी फीस 200 जमा करनी थी.2 दिन की "डेडलाइन" थी मेरे पास."मेरे पापा" ने पैसे दिए और दिमाग़ में आया कि लास्ट डे जमा कर दूंगा.उन पैसो की शॉप वाले के पास "मैक्सिमम सिक्योरिटी" जमा करके कॉमिक्स ले आया किराये पे पढ़ने के लिए.क्लास में फीस मांगी गयी तो अगले दिन का बहाना बना कर टाल दिया.अब मुसीबत ये थी के अगले दिन तक वो सारी कॉमिक्स पढ़ के लौटानी थी और मेरे पास किराये के भी पैसे नहीं थे कॉमिक्स वाले को देने के लिए.तो दिमाग़ ये लगाया के उस रात बिना सोये "मोमबत्ती" की रौशनी में कॉमिक्स चाट डाली और उसकी 2 कॉमिक्स भी दबा ली.अगले दिन कॉमिक्स शॉप पे वापस करने पहुँच गया.वापस 200 मांगे के अब और कॉमिक्स नहीं पढ़नी, आपके पास और नहीं है मेरी वाली.तो वो किराया जो 20 होता था वो काट कर 180 वापस करने लगा.अब क्या करता?मेरे पास तो एक भी पैसा नहीं था.मैंने उससे झूठ बोल दिया के किराया कल आपके बेटे को पहले ही दे दिया था और दो कॉमिक्स भी उसी समय पढ़ के वापस कर दी थी.उसको शक हुआ तो उसने पढ़ी हुई कॉमिक्स का नाम पुछा.मैंने उसी दिन उसकी कॉमिक्स रखने के सीरियल को समझ कर कुछ ऊपर के नाम याद कर लिए थे जो किसमत से वही निकले.उसको लगा मैं सच बोल रहा हु तो उसने पूरे पैसे वापस कर दिए.तब जाके मैंने फीस जमा करि और मेरी जान में जान वापस आयी जैसे बांकेलाल की आती है हर कॉमिक्स में.हालांकि बाद में मुझे बुरा लगा लेकिन तब तो मैं कॉमिक्स के "अमर प्रेम" में था इसलिए खुद को माफ़ कर दिया.😄😄
लोगो का समय के साथ प्यार बदलता जाता है लेकिन मेरे केस में ये बढ़ता गया.एक दो गर्लफ्रेंड भी बनाई जिन्होने कुछ समय बाद मेरे कॉमिक्स प्रेम का सबके सामने मज़ाक बनाया और "मजबूर" होकर उन्होंने हीरे जैसा अपना बॉयफ्रंड खो दिया.कॉलेज के दोस्तों ने जो खुद को स्टाइलिश समझते थे, थोड़ा इंसल्ट भी किया, टीचरों और घर वालो ने जम के कूटा, सबकी हंसी का पात्र भी बना लेकिन ये कॉमिक्स की "प्रेम ऋतू" का "खेल ख़त्म" नहीं हुआ.वीडियो गेम बने, कम्प्यूटर गेम्स आये, जमाना बढ़ता गया लेकिन अपनी पहली पसंद हमेशा कॉमिक्स रही.आज काफ़ी उम्र हो चुकी है."ये शादी होकर रहेगी" वाली दहलीज पे खड़ा हु लेकिन आज भी दिल बचपन वाला कॉमिक्स प्रेमी है जिसने तय किया है कि शादी भी उसी से करेगा जिसके पास उसके जैसा कॉमिक्स प्रेम वाला दिल होगा.महादेव की कृपा से कल जो भी हो लेकिन "सुपर इंडियन" की तरह एक कसम मैंने भी खायी है कि 80 साल का बुड्ढा भी हो जाऊंगा तब भी कॉमिक्स का नशा ख़त्म नहीं होने दूंगा.
बाकि कहानियाँ बहुत सी है लेकिन ज्यादा लम्बा लिखा तो लोगो के प्रोफेसर कमल कांत की तरह "कोमा" में जाने के आसार है इसलिए आज इतना ही.बाक़ी फिर "काली दुनिया " होने के बाद.....🙏😎
मेरे बहुत से मित्र जो खुद कॉमिक्स प्रेमी है वो आये दिन पुछा करते है मेरे कॉमिक्स प्रेम के बारे में.मेरे कलेक्शन के बारे में.कई बार मुझे इग्नोर करना पड़ता है तो कई बार छोटे छोटे पार्ट में कहानी सुनकर शांत कर देता हु.आज यहाँ सबके कॉमिक्स से जुड़े निजी अनुभव देखे तो सोचा अपना पिटारा भी आज ही खोल लिया जाये.बहती गंगा में हाथ धोना ज्यादा सही रहता है.😁😁
बात तब की है ज़ब मैं "4 साल का परमाणु" बन चूका था और "बुद्धिपलट" की तरह बचपन से ही "शैतान" था.पूरी तरह तो नहीं लेकिन थोड़ा थोड़ा "काला अक्षर भैंस बराबर" पढ़ना और चित्र देख कर समझना आता था. मैं अपने बड़े भैया, दीदी, पापा, मम्मी, दादी, बुआ, चाचा और पिंकी के साथ रहता था.उस समय लाइट बहुत आती जाती थी और ज्यादातर हम अपनी खटिया या पलंग बाहर बिछा कर सोते थे.शाम का समय था वो, ज़ब पहली बार मैंने भैया को कोई "सुपरहीरो" ड्रा करते देखा."सुपर कमांडो ध्रुव" था जम्प करने की पोज़ करते हुए जो भाई बना रहे थे.नीली पीली ड्रेस में वो मुझे बहुत अच्छा लगा.फिर समझ आया कि कॉमिक्स नाम की कोई चीज आती है जिसमे ऐसे एक्शन करते "सुपरहीरो" होते है जो लोगो को दुष्ट लोगो से बचाते है.जानकारी के लिए बता दू के मेरे भैया कॉमिक्स के बहुत बड़े फैन रहे है और किराये पे कॉमिक्स लाने और पढ़ने की आदत उन्ही की वजह से लगी थी.जो शुरुआत ध्रुव से हुई थी वो भैया के लगातार कॉमिक्स लाने से और बढ़ती गयी.मेरे घर में लगभग सारे कॉमिक्स प्रेमी रहे है. दादी धार्मिक चित्रकथा, चाचा एक्शन कॉमिक्स, मम्मी राजा रानी वाली, दीदी और बुआ डायमंड वाली, पापा हॉरर और भैया सुपरहीरो की कॉमिक्स के दीवाने थे.इन सबके चक्कर में मुझे भी कॉमिक्स का ऐसा नशा चढ़ा कि जो आज तक ख़तम नहीं हुआ.आप यकीन नहीं करोगे लेकिन मेरे क्राइम स्कूल की हर कॉपी, भाई की कॉपी, दीदी की कॉपी, पापा के ऑफिस पेपर्स, मम्मी की मैगज़ीन और यहाँ तक की घर के अखबारों तक में मैं कॉमिक्स के नाम, विलन के नाम लिखा करता था.आर्ट बनाया करता था.क्या ऐड हो या क्या कॉमिक्स के अंदर का आर्ट, मेरी ड्राइंग क्लास की कम और इन सुपरविलेन और सुपरहीरो से भारी रहती थी.पागलपन का नशा यही नहीं ख़त्म हुआ.आगे चल के मैं कॉमिक्स के सेट, कौन सी कॉमिक्स में किस आर्टिस्ट, राइटर, एडिटर, कलरिस्ट का क्या योगदान है, कॉमिक्स सीरियल नंबर, कॉमिक्स ईयर और पता नहीं क्या क्या लिख के लम्बी चौड़ी "मोस्ट वांटेड" लिस्ट बनाने लगा.घर की ऐसी कोई कॉपी नहीं बची जहा मेरी कॉमिक्स से रिलेटेड आर्ट या कोई जानकारी ना लिखी हो.बहुत बार तो रुई की तरह धुनाई भी होती थी.पता चला पापा को बर्थ सर्टिफिकेट बना के देने है और पीछे "मा कसम", "योद्धा की चीख" लिखी हुई हो.पता चला भाई को होमवर्क जमा करना हो और कॉपी में आगे नगरस्सी पे झूलता "नागराज" बना हो.जैसे जैसे बड़ा होता गया मेरा जूनून और पागलपन जो कॉमिक्स को लेके था वो बढ़ता गया.मैंने देखा कि किराये पे कॉमिक्स लाने में समस्या ये है कि उसको वापस करना पड़ता है जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं था तो मुझे कॉमिक्स कलेक्शन का पागलपन चढ़ गया.एक पागलपन ये भी था के मै अपनी खरीदी कॉमिक्स किसी को जल्दी हाथ नहीं लगाने देता था.इसके पीछे मंशा थी कि मेरी कॉमिक्स नयी जैसी बनी रहे, हाँ दुसरो की कॉमिक्स चुराने में, या मांगने में मुझे शर्म नहीं आती थी.होता ये था के इतनी मेहनत से खरीदी, या जुगाड़ करके लायी गयी कॉमिक्स ज़ब लोग मोड़ देते थे तो मुझे देख के हल्क वाला दौरा पड़ जाता था.फिर चाहे सामने मेरे से 4 गुना मेरा मामा का लड़का हो या क्लास का दादा, मैं डोगा की तरह दौड़ा कर मारता था.लोग कॉमिक्स छुपा के पढ़ते है, मैंने कॉमिक्स के लिए चोरी, डकैती, बड़ी बड़ी लड़ाई, सब कुछ किया है.सबसे मज़ा तब आता था ज़ब पापा क्लास में अच्छे नंबर लाने की "अनोखी शर्त" पर कॉमिक्स लाया करते थे.सच में उसी लालच के चक्कर में 70 परसेंट के नीचे कभी नंबर नहीं आये.फिर गर्मी की छुट्टिया हो तो मज़े से तखत पे बैठ कर या उल्टा लेट कर हलुवा खाते हुए कॉमिक्स पढ़ो, कितना मज़ा आता था बयान नहीं कर सकता.एक बुरी चीज इसमें ये भी है कि ये कॉमिक्स वाला प्यार इतना बढ़ गया था कि कॉमिक्स खरीदने के लिए घर से चोरी तक करनी पड़ी.उस बात का आज तक अफ़सोस है.हाँ पागलपन इतना किया है कि 16 की एक कॉमिक्स लेने के लिए 2 दिन 4km पैदल स्कूल जाता था.भूखे पेट रहता था और घर में किसी को पता भी नहीं चलने दिया.बड़े होने पे सबसे बड़ी दिक्कत यही है के दिमाग़ ज्यादा खुरापाती हो कर "मास्टरमाइंड" जाता है.शायद इसी का नतीजा था कि कॉमिक्स लेने के लिए डेली नयी नयी खुरपेंची किया करता था.ऐसे ही एक छोटा सा "हातिमताई" वाला किस्सा भी बताना चाहूंगा.एग्जाम शुरू होने वाले थे और उनकी फीस 200 जमा करनी थी.2 दिन की "डेडलाइन" थी मेरे पास."मेरे पापा" ने पैसे दिए और दिमाग़ में आया कि लास्ट डे जमा कर दूंगा.उन पैसो की शॉप वाले के पास "मैक्सिमम सिक्योरिटी" जमा करके कॉमिक्स ले आया किराये पे पढ़ने के लिए.क्लास में फीस मांगी गयी तो अगले दिन का बहाना बना कर टाल दिया.अब मुसीबत ये थी के अगले दिन तक वो सारी कॉमिक्स पढ़ के लौटानी थी और मेरे पास किराये के भी पैसे नहीं थे कॉमिक्स वाले को देने के लिए.तो दिमाग़ ये लगाया के उस रात बिना सोये "मोमबत्ती" की रौशनी में कॉमिक्स चाट डाली और उसकी 2 कॉमिक्स भी दबा ली.अगले दिन कॉमिक्स शॉप पे वापस करने पहुँच गया.वापस 200 मांगे के अब और कॉमिक्स नहीं पढ़नी, आपके पास और नहीं है मेरी वाली.तो वो किराया जो 20 होता था वो काट कर 180 वापस करने लगा.अब क्या करता?मेरे पास तो एक भी पैसा नहीं था.मैंने उससे झूठ बोल दिया के किराया कल आपके बेटे को पहले ही दे दिया था और दो कॉमिक्स भी उसी समय पढ़ के वापस कर दी थी.उसको शक हुआ तो उसने पढ़ी हुई कॉमिक्स का नाम पुछा.मैंने उसी दिन उसकी कॉमिक्स रखने के सीरियल को समझ कर कुछ ऊपर के नाम याद कर लिए थे जो किसमत से वही निकले.उसको लगा मैं सच बोल रहा हु तो उसने पूरे पैसे वापस कर दिए.तब जाके मैंने फीस जमा करि और मेरी जान में जान वापस आयी जैसे बांकेलाल की आती है हर कॉमिक्स में.हालांकि बाद में मुझे बुरा लगा लेकिन तब तो मैं कॉमिक्स के "अमर प्रेम" में था इसलिए खुद को माफ़ कर दिया.😄😄
लोगो का समय के साथ प्यार बदलता जाता है लेकिन मेरे केस में ये बढ़ता गया.एक दो गर्लफ्रेंड भी बनाई जिन्होने कुछ समय बाद मेरे कॉमिक्स प्रेम का सबके सामने मज़ाक बनाया और "मजबूर" होकर उन्होंने हीरे जैसा अपना बॉयफ्रंड खो दिया.कॉलेज के दोस्तों ने जो खुद को स्टाइलिश समझते थे, थोड़ा इंसल्ट भी किया, टीचरों और घर वालो ने जम के कूटा, सबकी हंसी का पात्र भी बना लेकिन ये कॉमिक्स की "प्रेम ऋतू" का "खेल ख़त्म" नहीं हुआ.वीडियो गेम बने, कम्प्यूटर गेम्स आये, जमाना बढ़ता गया लेकिन अपनी पहली पसंद हमेशा कॉमिक्स रही.आज काफ़ी उम्र हो चुकी है."ये शादी होकर रहेगी" वाली दहलीज पे खड़ा हु लेकिन आज भी दिल बचपन वाला कॉमिक्स प्रेमी है जिसने तय किया है कि शादी भी उसी से करेगा जिसके पास उसके जैसा कॉमिक्स प्रेम वाला दिल होगा.महादेव की कृपा से कल जो भी हो लेकिन "सुपर इंडियन" की तरह एक कसम मैंने भी खायी है कि 80 साल का बुड्ढा भी हो जाऊंगा तब भी कॉमिक्स का नशा ख़त्म नहीं होने दूंगा.
बाकि कहानियाँ बहुत सी है लेकिन ज्यादा लम्बा लिखा तो लोगो के प्रोफेसर कमल कांत की तरह "कोमा" में जाने के आसार है इसलिए आज इतना ही.बाक़ी फिर "काली दुनिया " होने के बाद.....🙏😎
1 comment:
Sahi kaha Sir ji🙂
🙂🙂🙂
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